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होलिका पर गोबर के कण्डे जलाने से वातावरण का शुद्दीकरण होता है : डा०विनोद त्रिपाठी

प्रतापगढ़ । अधर्म के नाश और धर्म एवं संस्कृति की जीत के प्रतीक के तौर पर फाल्गुन मास में मनाई जाने वाली होली किसे नहीं भाती। मगर होलिका दहन के दौरान उसमें जलने वाली झाडिय़ां और कचरे से निकलने वाला धुआं शहर के पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाता है, ये शायद ही कोई जानता हो। ऐसे में जरूरी है कि इस बार होली पर होलिका दहन के दौरान हम अपने जनपद के पर्यावरण का ध्यान रखें और लोगों को भी जागरूक करें। दैनिक जागरण समाचार पत्र ने नागरिकों को जागरूक कर इस समस्या के समाधान का भी विकल्प तलाशने का प्रयास किया है!
यह विचार उच्च प्राथमिक विद्यालय, कांपा मधुपुर , बाबा बेलखरनाथ धाम में बच्चों को संकल्प दिलाकर शिक्षक डा० विनोद त्रिपाठी ने जागरुक अभियान प्रारम्भ किया। डा० विनोद ने कहा कि ” होली के पूर्व कई लोग होलिका में लकडिय़ों के साथ-साथ कई अन्य चीजें भी डाल देते हैं, जिससे प्रदूषण फैलता है। लकडिय़ां भी अलग-अलग तरह की होती हैं। जिनका धुआं भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। होलिका दहन के दौरान प्रयास करना चाहिए कि प्लास्टिक की टूटी वस्तुएं, टायर, लकडिय़ां आदि न जलाएं। विशेषज्ञों का भी मानना है कि प्लास्टिक की वस्तुएं और टायर आदि ठोस कचरे को जलाना पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है। इसके कारण हवा में हानिकारक पार्टीकुलेट मैटर (पीएम) की मात्रा बढ़ जाती है। हवा में मौजूद ऐसे कण सांस के जरिए इंसानों के शरीर में पहुंचकर सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं। होली में जलते कूड़े से कार्बन-डाई-ऑक्साइड और कार्बन-मोनो-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें निकलती हैं। इससे सांस से जुड़ी समस्याएं हर उम्र के लोगों में बढ़ रही हैं। शिक्षक ने नवनिहाल छात्रों को बताया कि मंदिर से लेकर घरों में होने वाले यज्ञ हवन में भी गाय के गोबर वाले कंडों का इस्तेमाल होता है। इसका उद्देश्य वातावरण के शुद्धिकरण से है। कंडों के जलने पर ऑक्सीजन का उत्सर्जन होता है, जिससे वातावरण दूषित नहीं होता है। होलिका दहन में कंडों को जलाने की परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। ऐसे में होलिका में गोबर के कंडे यानी उपले, सूखी लकडिय़ों के उपयोग से कुछ बेहतर है।

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