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000 लीजिए खोलिए, गिलास में घोलिये और पी जाइये गांव का खरमिटावन, शहर में बना फास्टफूड उमेश श्रीवास्तव

प्रतापगढ़ (ब्यूरो)। लोग घर के हलवाहो व मजदूरो को सुबह के नाश्ते (खरमिटाव) के रूप में परोसते थे। गांव के लोग आज भी उसे सफर का प्रमुख आहार मानते है। निम्न आयवर्ग कोर्ट कचहरी से लेकर रिक्शा चालको व मजदूरो की आज भी उसी से क्षुधा शांत होती है। शहरियो में भी अब इसकी उपयोगिता बढ़ रही है। पढ़े लिखे उच्च शिक्षित समुदाय के लोग इसे फास्टफूड के रूप में प्रयोग करते है। और तो और कई रोगो में चिकित्सक इसके इस्तेमाल की सलाह देते है। यहां पर बात गांव की मेड़, पगडण्डियो से चलकर शहर के नुक्कड़ व चैराहो पर बिकने वाले सत्तू की हो रही है। पढ़े लिखे तबके मे आमतौर पर उपहास की दृष्टि से देखा जाने वाला सत्तू की बिक्री से नगर में दर्जनो लोग अपनी जीविका चला रहे है। शहर की कुछ दुकानो पर सत्तू का सौ, दो सौ ग्राम का पाउच भी बिकने लगा है। पाउच खोलिए, गिलास में घोलिए और पी जाइए। तपती दोपहरी में दो तीन घण्टे तक तो सत्तू का घोल तरोतांजा रखेगा ही। गौरतलब है कि नगर में इस समय एक से एक बढ़कर सत्तू की दुकाने सजी है। दुकानो पर सजे सत्तू में लम्बे लम्बे हरे मिर्च ग्राहको को बरबस ही आकर्षित करते है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो चना बाजार में 65 से 70 रूपए किलो बिकता है। उससे बने सत्तू की कीमत काफी बढ़ जाती है। इसके पीछे सत्तू विक्रेताओ के अपने तर्क है। ठेले पर सत्तू एवं चना चबेना बेचकर जीविकोपार्जन करने वाले रमेशर का कहना है कि कच्चे अनाज से सत्तू बनने तक काफी मेहनत करनी पड़ती है। भूनिये पीसिए फिर चलनी से छानने के बाद ही सत्तू ग्राहक तक पहुंचता है। इसमें भी भुनाई के दौरान वजन कम हो जाता है। पिछले पांच वर्ष से सत्तू व्यवसाय में लगे रामदीन ने बताया कि दिन भर भट्ठी के निकट बैठने के बाद मुश्किल से दो सौ या ढाई सौ रूपए की बिक्री होती है। दादा, परदादा के पैतृक व्यवसाय को संचालित कर रहे है। इस व्यवसाय में घर के सभी लोग जुटते है। इसके बावजूद भी पर्याप्त आमदनी नहीं हो पाती है। इस समय कोरोना का कहर बढ़ने के कारण व्यवसाय ठप सा हो गया है। यदि ई काम छोड़ी तौ काव करी। यही हाल अन्य सत्तू विक्रेताओं का भी है। उनका कहना है कि इतनी पूंजी नहीं है कि कोई बड़ा व्यवसाय करे। ऐसे में इसी से गृहस्थी की गाड़ी चलायी जा रही है।

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